Menu
blogid : 24203 postid : 1196768

देश का सरदर्द : जल और जंगल

Confluence India
Confluence India
  • 18 Posts
  • 1 Comment

देश का सरदर्द : जल और जंगल

देश भयावह सूखे से जूझ रहा है तथा जल और जंगल इंसान का साथ छोड़ रहे हैं. कोयले की खुदाई के नाम पर जंगलों को काटा जा रहा है. जिससे जंगल में रहने वाले हाथी का प्राकृतिक घर तबाह हो रहा है. जब ये हाथी आकर गांवों में कोहराम मचाते हैं तो यह बात कभी नहीं उठाई जाती है कि यह आखिरकार मनुष्य ही है जिसने हाथियों को गांव आने के लिये मजबूर किया है. खासतौर पे शहरों को स्मार्ट बनाने के नाम पर वहां पेड़ काटे जा रहें हैं. मनुष्य ने प्रकृति को इतना छेड़ दिया है कि उसका खुद का अस्तित्व ही खतरें में पड़ गया है

.

सब कुछ हो रहा है विकास तथा औद्योगिकरण के नाम पर. ऐसे में सवाल किया जाना चाहिये कि ऐसा विकास किस काम का जिससे मानव का अस्तित्व ही खतरें में पड़ जाये? मानव जीवन के लिए जल, जंगल और जमीन तीनों प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता नितांत आवश्यक है, लेकिन अफसोस तीनों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं.

इंसान की आधुनिक विकासवादी सोच जाने हमें कहां ले जा रही है? वह इतना आधुनिक हो चला है कि जिस डाल पर वह बैठा है उसे ही काट रहा है. देश जल और जलंग दोनों के संकट से जूझ रहा है.दक्षिण भारत के मराठवाड़ा, बुंदेलखंड समेत दस राज्य सूखे की चपेट हैं. मराठवाड़ा और लातूर में इतनी भयावह स्थिति है कि उसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती है. मासूम बच्चे अपनी प्यास बुझाने के लिए कीचड़युक्त गंदे पानी को जीभ से पी रहे हैं. पानी की तलाश में गहरे कुएं तक में उतर जा रहे हैं. चहुंओर सूखा ही सूखा.

दक्षिण में जल संकट और उत्तर में जलता जंगल, लेकिन इस विकट स्थिति के समाधान का रास्ता दूर-दूर तक नहीं. पानी के बिना हजारों पशु-पक्षी दमतोड़ चुके हैं. सरकार को इन इलाकों के लिए वाटर रेल चलाना पड़ रहा है. लातूर में धारा 144 लगानी पड़ी है. जल माफिया के कारण जलाशयों पर पुलिस का पहरा बिठाना पड़ा

.

जरा सोचिए, जहां कभी दूध की नदियां बहती थी और जिस देश को उसकी नदियों के नाम से दुनिया में जाना जाता है, वह आज जल संकट जैसी भयंकर त्रासदी से जूझ रहा है.प्रकृति की कितनी बिडंबना है की समाधान के नाम पर हमारे पास कुछ नहीं हैं. सरकार असहाय दिखती है. जब जल, जंगल और जमीन ही उपलब्ध नहीं रहेगें, तो इंसान और उसका वजूद क्या सुरक्षित रहेगा? अपने आप में यह बड़ा सवाल है.

ग्रामीण इलाकों की स्थिति तो और भी बुरी है. देश के प्रत्येक पांच घरों में जल संकट विद्यमान है. हम अपनी बात नहीं करते हैं. यह खुद देश के कृषिमंत्री का बयान है. ग्रामीण परिवारों की आबादी करीब 17 करोड़ से अधिक है, जिसमें 25 फीसदी से अधिक यानी 4,41,390 घरों में पेयजल की त्रासदी चरम पर है और 15,345 घरों में सरकार टैंकर से पानी उपलब्ध करा रही है. 13,372 बोरवेल खोदे गए हैं. 44,498 नए बोरबेल पर काम चल रहा है.यह सरकारी बयानबाजी है, लेकिन धरातलीय स्थिति इससे कहीं और विकट है. इसकी जड़ में हमारी विकासवादी वैज्ञानिक सोच ही है जिसका नतीजा हमें भुगतना पड़ रहा है.

परंपरागत जलस्रोतों का अस्तित्व खत्म हो चला है. गांवों में आज भी कुएं पेयजल का जरिया हैं, लेकिन उनकी स्थिति बद से बदतर है. तालाबों को पाट कर आलीशान मकान बना लिए गए हैं. वर्षा के जल संरक्षण के संबंध में बनाई गई नीति बेमतलब साबित हो रही है.

मनरेगा केवल वोट बैंक का और पंचायतों के लिए लूट का माध्यम बनी है. विकास से इसका वास्ता नहीं रहा. इसके अलावा इंसानी और जंगली जीवों के लिए जंगल सबसे अहम है, लेकिन मानव की भोग लिप्सा ने जंगलों के अस्तित्व पर भी संकट खड़ा कर दिया.

अधाधुंध विकास की परिभाषा ने नई समस्या खड़ी कर दी. हाल फिलहाल मे उत्तराखंड के जंगलों में लगी आग हमारे लिए बड़ी चुनौती साबित हुई, हम जंगल की आग पर नियंत्रण नहीं पा सके और इस कारण जंगली जीवों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया ,सूखे के कारण स्थिति और विकट हो चली नतीजा, आग का दावानल हर पल नए क्षेत्रों को अपनी चपेट में लेता चला।उत्तराखंड के 13 जिलों में यह आग फैली 1500 गांवों और तकरीबन 90 दिनों तक जंगलों में आग लगी रही और उसे बुझाना बोहित मुश्किल होता चला गया. इससे यह साबित होता है कि आग नियंत्रण को लेकर उत्तराखंड प्रशासन और राज्य का वनमंत्रालय संवेदनशील नहीं रहा. अगर उसने जरा संवेदनशीलता और सतर्कता दिखाई होती, तो स्थिति वैसी न होती.

आग इतनी भयानक थी कि एक राष्ट्रीय राजमर्ग को भी बंद करना पड़ा. राज्यपाल ने 6000 हजार से अधिक लोगों को आग पर काबू पाने के लिए तैनात किया और पांच करोड़ की राशि मंजूर की गई । चीड़ के जंगलों में यह आग और अधिक फैलती है. चीड़ के पेड़ जब आग पकड़ते हैं, तो यह पेट्रोल का काम करते हैं. जगंलों में आग कभी-कभी बिजली गिरने और गर्मियों के कारण लगती है. कभी यह मानवीय भूलों और गलतियों से लगती है.लोग जंगल से गुजरते वक्त धूम्रपान करने के बाद सिगरेट व बीड़ी छोड़ देते हैं, जो सूखे पत्तों आग की जद में आकर दावानल बन जाते हैं. अगर हम आंकड़ों पर गौर करें तो धरती पर औसत सौ बार आसमानी बिजली गिरती है. इस तरह की घटनाएं उत्तरी अमरीका के जंगलों में अधिक होती हैं.

दूसरी वजह हवा में आक्सीजन की मात्रा अधिक होने से आग अधिक तेज फैलती है, क्योंकि आक्सीजन आग को जलाने में सहायक होती है.देश में जल और जंगल का संकट हमारे लिए विचारणीय बिंदु है. आजादी के कई वर्षो बाद हमने इस तरह का कोई ऐसा तंत्र नहीं विकसित किया, जिससे इस तरह की आपदाओं से निपटा जाए. हमारी आंख नहीं खुल रही है. हमारे लिए यह सबसे चिंतनीय है.

वक्त रहते अगर हमने होश नहीं ली तो जल, जंगल और जमीन हमारे लिए बड़ी मुसीबत खड़ी करेंगे और इसका समाधान हमारे पास उपलब्ध नहीं होगा. फिर हमें इंसानी जिंदगी को बसाने के लिए आसमान की तलाश करनी होगी, जबकि हमारे विकास, संस्कृति और सभ्यता में सहायक जल और जंगल नहीं होंगे. फिर हमारा अस्तित्व कहां होगा? सोचिए अब वक्त आ गया.

राहुल खंड़ालकर

confluenceindia.blogspot.com

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh