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मथुरा कांड: सवाल कई,जवाब नही!

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मथुरा कांड: सवाल कई,जवाब नही!

अब उसे कंस कहें या नृशंस, कोई फायदा नहीं. पूरे देश के सामने जो सच सामने आया, उसने राज्य और केन्द्र के खुफिया तंत्र की कलई खोलकर रख दी. सवाल तो सुलगेगा, लंबे समय तक सियासत भी होगी, होनी भी चाहिए क्योंकि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों की आहट के ऐन पहले इस हकीकत ने पूरे देश को सन्न कर दिया है. अभी तो प्रश्नों की बौछार आनी शुरू हुई है, लगातार झड़ी बाकी है.

मथुरा कई दृष्टिकोण से बेहद संवेदनशील है. धार्मिक नगरी के रूप में आस्था और श्रद्धा का केंद्र है, यहीं बड़ी तेल रिफायनरी भी है. लगभग 1085 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन के जरिए यहां तेल शोधन के लिए लाया जाता है. ऐसे में मथुरा राज्य और केन्द्र, दोनों के खुफिया तंत्र के राडार पर होना चाहिए. बड़ा सवाल, ऐसा क्यों नहीं हुआ?

हैरानी की बात है कि सत्याग्रह के नाम पर दो दिनों के लिए पनाह की खातिर मिली 270 एकड़ जमीन पर अपनी समानान्तर सरकार चलाने वाले कंस रूपी रामवृक्ष पर दो वर्षों में ही 10 से ज्यादा मुकदमे कायम किए गए, लेकिन उसका कुछ भी नहीं बिगड़ पाया. जाहिर है यह सब केवल कागजी खानापूर्ति की रस्म अदायगी थी.

भूखे, बेरोजगार, गरीब और मुसीबत के मारों को मिलाकर बना संगठन, किस खूबी से मथुरा में काम कर रहा था और प्रशासन किस कदर नाकाम था! आजाद हिन्दुस्तान के इतिहास में शायद ही ऐसा उदाहरण कहीं मिले कि प्रशासन की नाक के नीचे, खुले आम किसी की बादशाहत चलती रहे और पास में ही जिले के मुखिया अंधे-गूंगे-बेहरे बने बैठे रहें. उससे बड़ी शर्मनाक घटना यह रही कि हथियार, गोला बारूद, बम और न जाने क्या-क्या इकट्ठे होते रहे और खुफिया तंत्र को कानों कान खबर तक नहीं हुई.

इसे चूक कहना नाइंसाफी होगा. निश्चित रूप से यह बिना राजनीतिक मदद के संभव नहीं है. लेकिन सवाल फिर भी यही कि मथुरा की सुरक्षा की जवाबदेही जितनी राज्य सरकार की बनती है, उतनी ही केन्द्र की भी. प्रशासन की नाक के नीचे कोई इतना बड़ा अपराधी बन जाए, यह रातोंरात संभव नहीं है. अहम यह कि लाखों की आबादी के बीच, शहर में सरकार के लिए चुनौती बना मुखिया देशद्रोह, विद्रोह, एकता-अखण्डता खण्डित करने की हुंकार भरे, पुलिस पर हमला करे सरकारी सम्पत्ति हथियाए और उस पर मामूली अपराधों के तहत मामले दर्ज हों!

पूछने वाले जरूर पूछेंगे कि हार्दिक पटेल, कन्हैया कुमार और न जाने कितने वे जो जब-तब देशद्रोह के कटघरे में आ जाते हैं, उनसे कैसे अलग था रामवृक्ष यादव?

अब तो रामवृक्ष यादव के नक्सलियों से तार जुड़े होने के सूबत भी मिल रहे हैं. जवाहर बाग की फैक्ट्री में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार और पश्चिम बंगाल से आतंक फैलाने का कच्चा माल आता था. इतना ही नहीं जरूरत के हिसाब से उपयोग के बाद ये गोला-बारूद वापस भी किया जाता था. सैकड़ों किलोमीटर दूर से आकर दो साल तक तबाही का यह बाजार सजता रहा और समूचा सुरक्षा तंत्र कुछ सूंघ तक नहीं पाया?

रामवृक्ष यादव का अतीत सबके सामने है. इटावा के ही तुलसीदास यादव यानी जय गुरुदेव का चेला था. उन्हीं की तर्ज पर ये भी सुभाषचंद्र बोस के नाम का इस्तेमाल करता था. 2012 मे जय गुरुदेव की मृत्यु के बाद उनकी संपत्ति पर तमाम लोगों की निगाहें थी. रामवृक्ष यादव सहित तीन प्रमुख दावेदार थे. दो अन्य उनका ड्राइवर पंकज यादव और एक अन्य चेला उमाकान्त तिवारी थे. सम्पत्ति कब्जाने में पंकज यादव सफल रहा जिसने रामवृक्ष को आश्रम से बाहर का रास्ता दिखाया.

रामवृक्ष के शातिर दिमाग ने राजनीति की ओर रुख किया और 2014 में फिरोजाबाद सीट पर जबरदस्त सक्रिय रहकर उत्तर प्रदेश के कद्दावर नेता रामगोपाल यादव के पुत्र अक्षय यादव के लिए अपने 3 हजार से ज्यादा समर्थकों के साथ खूब काम किया और चुनाव में जीत भी हासिल हुई. इससे उसकी हैसियत बढ़ी. कहते हैं तभी इसके मन में मथुरा के जवाहरबाग का सपना पला और दो दिन के लिए धरने के नाम पर आसानी से अनुमति ले ली (राजनैतिक निकटता के चलते मिलनी ही थी) और अपनी कथित फौज के साथ रामवृक्ष यादव ने वहां जो अपना डेरा जमाया, उसका अंत कैसे हुआ, यह सबके सामने है. कहते हैं कि उसने मथुरा में कभी भी तेज तर्रार अधिकारियों की अपने राजनैतिक दम पर नियुक्ति नहीं होने दी.

हैरानी वाली बात, रामवृक्ष यादव इतना सब कुछ करता रहा और प्रशासन नाकाम और अंधा कैसे बना रहा अचरज जरूर होता है इस घटना के बाद लोकतंत्र की दुहाई देने वालों के चेहरे भी अचानक लोगों को खुद-ब-खुद याद आने लगे हैं. विशेषकर वे, जो न्यायपालिका-कार्यपालिका-विधायिका की बातें करते हैं. कई मौकों पर न्यायपालिका को उसकी औकात जताने की कोशिश भी करते हैं, नसीहतें देते हैं.  अगर विधायिका और कार्यपालिका पर सवाल उठते हैं तो क्या गलत? लगता नहीं कि इतना बड़ा मामला शुरू होते ही प्रशासन की जानकारी में न आया हो. बस जवाब इतना ही चाहिए कि प्रशासन, सरकार और सुरक्षा तंत्र नाकाम क्यों रहा?इसका जवाब मिलेगा या नहीं, यह तो पता नहीं पर इतना जरूर पता है कि भला हो भारत की न्यायपालिका का जो कई मौकों पर खुद आगे आकर लोकतंत्र के लिए कड़े फैसले लेती है. भला ये लोकतंत्र के शहंशाहों को क्यों अच्छा लगेगा?

राहुल खंड़ालकर

कांफ्लूएंस इंडिया

confluenceindia.blogspot.com

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