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राजन को क्यों जाना पड़ रहा है?

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राजन को क्यों जाना पड़ रहा है?

अब यह तय हो गया है रघुराम राजन आरबीआई के गवर्नर पद पर सितंबर के बाद नहीं रहेंगे. दरअसल, रघुराम राजन सितंबर माह में रिजर्व बैंक के गवर्नर के तौर पर अपना कार्यकाल पूरा कर रहे हैं. पिछले कुछ समय से इस बात के कयास लगाये जा रहे थे कि राजन को दुबारा इस पद के लिये चुना जायेगा कि नहीं. इसी बीच भारतीय राजनीति के ‘अभिमन्यु’ जिसे चक्रव्यूह में केवल घुसना आता है, सुब्रमणियम स्वामी ने उन पर ताबड़तोड़ हमला करना शुरु कर दिया.

स्वामी के राजन पे हमलों से देश की जनता के सामने यह संदेश गया कि मानो मोदी सरकार रघुराम राजन को इस पद पर नहीं चाहती है. स्वामी के आरोपों के बाद न तो वित्तमंत्री ने न ही प्रधानमंत्री ने इसका खंडन किया. जाहिर है कि इससे राजन को ठेस पहुंची तथा उन्होंने विवाद में पड़ने के पहले खुद ही अपने भविष्य का फैसला कर लिया.

याद रखिये कि रघुराम राजन न तो गरीबों के मसीहा हैं और न ही वह देश में कोई रामराज्य लाने वाले थे. रघुराम राजन दुनिया के वह अर्थशास्त्री हैं जिन्होंने 2008 के भयानक आर्थिक मंदी के तीन साल पहले ही उसके बारें में आगाह कर दिया था. रघुराम राजन कॉर्पोरेट जगत को प्रिय एक अर्थशास्त्री हैं जो क्रोनी पूंजीवाद की खिलाफ़त करते हैं.

यह क्रोनी पूंजीवाद ही राजन के जाने के नेपथ्य में काम कर रहा है. याद कीजिये कि यह वह रघुराम राजन ही हैं जिन्होंने सबसे पहले सार्वजनिक बैंकों को उनका अकाउंट दुरस्त करने के लिये कहा था. राजन के प्रयासों के कारण ही बैंकों के उन खातेदारों के नाम कुछ हद तक लोगों की नज़र में आये जो हजारों-लाखों करोड़ रुपयों का कर्ज लेकर उसे डकार जाते हैं.

रघुराम राजन ने बैंकों से उनके एनपीए यानी की नान परफॉर्मिंग एसेट को कम करने को कहा. जाहिर है कि इससे सबसे ज्यादा चोट उन धन्ना सेठों को पहुंची जिनका काम ही बैंकों में जमा जनता के पैसों को कर्ज के रूप में लेकर उससे अपना साम्राज्य खड़ा करना है. जगजाहिर है कि उस कर्ज को चुकता करने की बारी आने पर वे विदेश भाग जाते हैं.

कुछ समय पहले इंडियन एक्सप्रेस समाचार समूह के द्वारा रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने उनके आरटीआई के जवाब में बताया था कि वित्त वर्ष 2013 से वित्त वर्ष 2015 के बीच 29 सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के 1.14 लाख करोड़ रुपयों के उधार बट्टे खाते में डाल दिये गये हैं. रिजर्व बैंक ने इनके नाम नहीं बताये हैं पर इसे आसानी से समझा जा सकता है कि निश्चित तौर पर यह आम जनता को दिये जाने वाले गाड़ी, मकान, शिक्षा या व्यक्तिगत लोन नहीं है. ऐसे मौकों पर तो बैंक वाले आम जनता पर लोटा-कंबल लेकर चढ़ाई कर देती है. जाहिर है कि कार्पोरेट घरानों की इसमें बड़ी हिस्सेदारी तय है.

राजन के कारण ही देश में बैंकों से कर्ज लेकर डकार जाने के खिलाफ़ माहौल बना है तथा जागृति आई है.

दूसरा, रघुराम राजन ने ब्याज की दर को कम नहीं किया. जबकि कई उद्योगपति इसकी राह देख रहे थे कि कब ब्याज की रकम कम हो तथा लोग उससे कर्ज लेकर खरीददारी करें. आज बाजार बैठा हुआ है इसलिये उद्योगपति चाहते हैं कि उनकों खरीददार मिले. ब्याज की दर कम करने से ऐसा मुमकिन हो सकता था. जबकि राजन ने मंदी में बाजार में पैसा डालने से इंकार कर दिया था.

अर्थशास्त्र को देखने-समझने के कई नज़रिये होते हैं. इस कारण से कई हमारी राय से सहमत नहीं भी हो सकते हैं. परन्तु यह क्रोनी पूंजीवाद ही है जो राजन के जाने के नेपथ्य में काम कर रहा है.

राहुल खंड़ालकर

confluenceindia.blogspot.com

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